महाराष्ट्र में राज्यपाल के फ़ैसले से जुड़े पाँच सवाल: ब्लॉग
नैतिकता, मूल्य, आदर्श, नियम, सिद्धांत, व्यवस्था, विधान, संविधान, प्रावधान, मर्यादा, परंपरा, ईमानदारी, पारदर्शिता, औचित्य, शिष्टाचार,
लाज-लिहाज...कई ऐसे शब्द हैं जिनकी चर्चा महाराष्ट्र के गुपचुप शपथ ग्रहण
समारोह के बाद होनी चाहिए थी, लेकिन नहीं हो रही है.
ऊपर जितने शब्द लिखे हैं उनकी अनदेखी सियासतदां हमेशा से करते रहे हैं, लेकिन मीडिया के शोर-हंगामे का एक डर उनके दिल में ज़रूर रहता था, जो अब काफ़ी हद तक ख़त्म हो गया है.
टीवी चैनलों पर 'चाणक्य की चतुराई', 'कोश्यारी की होशियारी', 'बेमेल गठबंधन से बच गया महाराष्ट्र', 'रातोरात पटल गई बाज़ी' जैसे जुमले उछल रहे हैं.
दूसरी तरफ़, सोशल मीडिया पर हँसी-ठट्ठे का दौर जारी है, तरह-तरह के लतीफ़े, पैरोडी, वन-लाइनर और मीम लोग धड़ाधड़ शेयर कर रहे हैं.
महाराष्ट्र में राजनीतिक रस्साकशी अभी लंबी चलेगी, बहुत सारे सवाल सामने आ रहे हैं, आगे भी आएंगे. मामला अब अदालत में चला गया है, और अब सुप्रीम कोर्ट सत्ता पाने से चूक गए महागठबंधन की याचिका पर क़ानूनी फ़ैसला सुनाएगा.
राजनीति में आदर्शवाद की उम्मीद रखने वाले लोगों को भावुक या नासमझ माना जाता है. नेता सत्ता हड़पने के लिए हमेशा पिछली बार से अधिक दुस्साहस दिखाते हैं, अगर मीडिया और जागरूक नागरिक खामोश रहते हैं या गंभीर चर्चा को बेमानी मानते हैं, तो मर्यादा तोड़ने वालों का मनोबल ही बढ़ाते हैं.
ध्रुवीकरण के इस दौर में ऐसा लगता है कि सही-गलत की नई परिभाषा बन चुकी है- अपना वाला सब सही करता है, दूसरा वाला सब गलत करता है.
इन दिनों लोकतंत्र के अस्तित्व से जुड़े मुद्दों पर सार्थक चर्चा की गुंजाइश जितनी कम हुई है, उसकी ज़रूरत उतनी ही ज़्यादा बढ़ गई है.
जैसा राममनोहर लोहिया कहा करते थे, 'ज़िंदा कौ
बीजेपी की पवित्रता के छींटे से शुद्ध होने वालों की लंबी सूची में अब अजित पवार का नाम भी शामिल हो चुका है. अजित पवार का अब बाल भी बांका नहीं हो सकता, अपने उप मुख्यमंत्री पर किस सरकार ने कब कानूनी कार्रवाई की है?
तोप की नाल अब संभवत: शरद पवार और उद्धव ठाकरे की ओर घूम जाएगी. यही है भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई?
कुछ ही दिनों पहले तक देवेंद्र फडणवीस कह रहे थे कि अजित पवार जल्दी ही जेल में होंगे, अचानक शुक्रवार की रात इल्हाम हुआ कि उनसे अच्छा डिप्टी सीएम भला कौन हो सकता है! क्या अब अजित पवार पर लगे सिंचाई घोटाले के आरोप धुल गए हैं?
अवसरवाद, जोड़तोड़ और मोलभाव तो सब कर रहे थे, कांग्रेस-एनसीपी और शिव सेना, यह किस तरह का गठबंधन होता?
एक तरफ़ मुंबई पर मराठी वर्चस्व की बात करने वाली शिव सेना, ख़ुद को सेक्युलर बताने वाली कांग्रेस और सोनिया गांधी को विदेशी मूल का बताकर हंगामा मचाने वाले शरद पवार, ये रिश्ता क्या कहलाता?
हालांकि विदेशी मूल के आधार पर विरोध ज़रा पुराना है, इस बार कांग्रेस-एनसीपी मिलकर चुनाव लड़े थे लेकिन शरद पवार का रुख़ बार-बार रुख़ बदलना उनकी शख़्सियत की पहचान-सा बन गया है.
वैसे भी जहां तक जनादेश का सवाल है, वह जनता ने बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को दिया था, अब जो भी होगा, जनता तो ठगा हुआ ही महसूस करेगी.
लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि छोटे-से-छोटे खेल के भी कुछ नियम-कायदे होते हैं, यह तो संविधान और लोकतंत्र की बुनियाद से जुड़ा मामला है इसलिए गंभीरता की उम्मीद की ही जानी चाहिए.
में पाँच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं', लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि जनादेश का अपमान देखकर भी लोग बौखलाते नहीं हैं.
पिछले कुछ सालों में गोवा, मणिपुर, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे अनेक राज्यों में लोगों ने महसूस किया कि जनादेश की अनदेखी हुई, लेकिन प्रतिक्रिया नहीं हुई.
मज़बूत और सत्ताधारी दल हमेशा मनमानी करते हैं, अपने दौर में कांग्रेस ने भी यही कुछ किया था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि अब जो कुछ बीजेपी कर रही है वह जायज़ और सही है. सवाल तब भी उठने चाहिए थे, अब भी उठने चाहिए.
लोग मणिपुर और गोवा का रोना रो रहे थे कि वहाँ बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस सरकार नहीं बना पाई, लेकिन विडंबना देखिए कि कर्नाटक में कांग्रेस ने जोड़-तोड़ करके सरकार बनाई और वह ऐसी ही कोशिश में महाराष्ट्र में भी शामिल हुई.
कुल मिलाकर, दुखद ये है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में किसका विश्वास है, यह दावे से नहीं कहा जा सकता.
ऊपर जितने शब्द लिखे हैं उनकी अनदेखी सियासतदां हमेशा से करते रहे हैं, लेकिन मीडिया के शोर-हंगामे का एक डर उनके दिल में ज़रूर रहता था, जो अब काफ़ी हद तक ख़त्म हो गया है.
टीवी चैनलों पर 'चाणक्य की चतुराई', 'कोश्यारी की होशियारी', 'बेमेल गठबंधन से बच गया महाराष्ट्र', 'रातोरात पटल गई बाज़ी' जैसे जुमले उछल रहे हैं.
दूसरी तरफ़, सोशल मीडिया पर हँसी-ठट्ठे का दौर जारी है, तरह-तरह के लतीफ़े, पैरोडी, वन-लाइनर और मीम लोग धड़ाधड़ शेयर कर रहे हैं.
महाराष्ट्र में राजनीतिक रस्साकशी अभी लंबी चलेगी, बहुत सारे सवाल सामने आ रहे हैं, आगे भी आएंगे. मामला अब अदालत में चला गया है, और अब सुप्रीम कोर्ट सत्ता पाने से चूक गए महागठबंधन की याचिका पर क़ानूनी फ़ैसला सुनाएगा.
राजनीति में आदर्शवाद की उम्मीद रखने वाले लोगों को भावुक या नासमझ माना जाता है. नेता सत्ता हड़पने के लिए हमेशा पिछली बार से अधिक दुस्साहस दिखाते हैं, अगर मीडिया और जागरूक नागरिक खामोश रहते हैं या गंभीर चर्चा को बेमानी मानते हैं, तो मर्यादा तोड़ने वालों का मनोबल ही बढ़ाते हैं.
ध्रुवीकरण के इस दौर में ऐसा लगता है कि सही-गलत की नई परिभाषा बन चुकी है- अपना वाला सब सही करता है, दूसरा वाला सब गलत करता है.
इन दिनों लोकतंत्र के अस्तित्व से जुड़े मुद्दों पर सार्थक चर्चा की गुंजाइश जितनी कम हुई है, उसकी ज़रूरत उतनी ही ज़्यादा बढ़ गई है.
जैसा राममनोहर लोहिया कहा करते थे, 'ज़िंदा कौ
बीजेपी की पवित्रता के छींटे से शुद्ध होने वालों की लंबी सूची में अब अजित पवार का नाम भी शामिल हो चुका है. अजित पवार का अब बाल भी बांका नहीं हो सकता, अपने उप मुख्यमंत्री पर किस सरकार ने कब कानूनी कार्रवाई की है?
तोप की नाल अब संभवत: शरद पवार और उद्धव ठाकरे की ओर घूम जाएगी. यही है भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई?
कुछ ही दिनों पहले तक देवेंद्र फडणवीस कह रहे थे कि अजित पवार जल्दी ही जेल में होंगे, अचानक शुक्रवार की रात इल्हाम हुआ कि उनसे अच्छा डिप्टी सीएम भला कौन हो सकता है! क्या अब अजित पवार पर लगे सिंचाई घोटाले के आरोप धुल गए हैं?
अवसरवाद, जोड़तोड़ और मोलभाव तो सब कर रहे थे, कांग्रेस-एनसीपी और शिव सेना, यह किस तरह का गठबंधन होता?
एक तरफ़ मुंबई पर मराठी वर्चस्व की बात करने वाली शिव सेना, ख़ुद को सेक्युलर बताने वाली कांग्रेस और सोनिया गांधी को विदेशी मूल का बताकर हंगामा मचाने वाले शरद पवार, ये रिश्ता क्या कहलाता?
हालांकि विदेशी मूल के आधार पर विरोध ज़रा पुराना है, इस बार कांग्रेस-एनसीपी मिलकर चुनाव लड़े थे लेकिन शरद पवार का रुख़ बार-बार रुख़ बदलना उनकी शख़्सियत की पहचान-सा बन गया है.
वैसे भी जहां तक जनादेश का सवाल है, वह जनता ने बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को दिया था, अब जो भी होगा, जनता तो ठगा हुआ ही महसूस करेगी.
लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि छोटे-से-छोटे खेल के भी कुछ नियम-कायदे होते हैं, यह तो संविधान और लोकतंत्र की बुनियाद से जुड़ा मामला है इसलिए गंभीरता की उम्मीद की ही जानी चाहिए.
में पाँच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं', लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि जनादेश का अपमान देखकर भी लोग बौखलाते नहीं हैं.
पिछले कुछ सालों में गोवा, मणिपुर, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे अनेक राज्यों में लोगों ने महसूस किया कि जनादेश की अनदेखी हुई, लेकिन प्रतिक्रिया नहीं हुई.
मज़बूत और सत्ताधारी दल हमेशा मनमानी करते हैं, अपने दौर में कांग्रेस ने भी यही कुछ किया था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि अब जो कुछ बीजेपी कर रही है वह जायज़ और सही है. सवाल तब भी उठने चाहिए थे, अब भी उठने चाहिए.
लोग मणिपुर और गोवा का रोना रो रहे थे कि वहाँ बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस सरकार नहीं बना पाई, लेकिन विडंबना देखिए कि कर्नाटक में कांग्रेस ने जोड़-तोड़ करके सरकार बनाई और वह ऐसी ही कोशिश में महाराष्ट्र में भी शामिल हुई.
कुल मिलाकर, दुखद ये है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में किसका विश्वास है, यह दावे से नहीं कहा जा सकता.
Comments
Post a Comment